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Jawaid Hayat
 
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* पिघल रही है ग़म-ए-दिल से रौशनी हर वक&# *
पिघल रही है ग़म-ए-दिल से रौशनी हर वक़्त !
जिधर भी देखूँ नज़र आए तीरगी हर वक़्त !!
सराब करती है सैहरा को इक नदी हर वक़्त !
कुछ ऐसे आँख में रहती है अब नमी हर वक़्त !!
चिराग़-ए-वस्ल-ए-मुहब्बत तो बुझ गया कब का !
उलझ रही है अंधेरों से रौशनी हर वक़्त !!
मिरी तरह ये शब-ए-ग़म भी उजड़ी उजड़ी है !
है नब्ज़ चाँद सितारों की डूबती हर वक़्त !!
न जाने कैसी ख़ुशी की तलाश है तुझ को !
तिरे मिज़ाज में देखी है बर-हमी हर वक़्त !!
ख़िरद ने इश्क़ में मुझ को सदा फ़रेब दिया !
जुनूँ ने मेरे फ़क़त की है रहबरी हर वक़्त !!
करे न दार पे तेरे भी रक़्स-ए-बिस्मिल ये !
दिल-ए-फ़िगार में सिमटी है बे ख़ुदी हर वक़्त !!
हिसार-ए-ज़ात से बाहर कभी नहीं आता !
है क़ैद अपनी रऊनत में आदमी हर वक़्त !!
उठी है सब की निगाहे-करम मिरी जानिब !
करे है मुझ को तबाह मेरी सादगी हर वक़्त !!
कुछ ऐसे ज़ीस्त वजूद-ओ-अदम में उलझी है !
मैं ढूँडता ही रहा अपनी आ-गही हर वक़्त !!
ऐ काश होते वफ़ा के शजर भी दुनिया में !
वफ़ा के फूल की दुनिया में है कमी हर वक़्त !!
अजल ही ज़ीस्त का ज़ेवर हया॔त है असली !
सुनाई देती है पाज़ेब गूंजती हर वक़्त !!
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