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Jawaid Hayat
 
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* एक नग़मा हूँ तू होंटों पे सजाले मु *
ग़ज़ल

एक नग़मा हूँ तू होंटों पे सजाले मुझ को
अपनी तन्हाई की सोचों में बसाले मुझ को
इस लिये तुझ से निगाहें न मिलाईं मैं ने
के तेरी ख़न्दा-लबी मार न डाले मुझ को
इस तरह आ तू अगर ख़ुआब में आना चाहे
नींद न टूटे मेरी और जगाले मुझ को
एक दिन ख़ुआब में देखा था उन्हें जलवा-नुमा
तब से हर सू नज़र आते हैं उजाले मुझ को
चुपके चुपके मैं शबे-ग़म में जला करता हूँ
के धुआँ देख के कोई न बुझाले मुझ को
देखकर ज़र्फ़ मेरे इश्क़ का शर्मिंदा हैं
संग हाथों में लिये ढूंडने वाले मुझ को
किसका मक़तल है यह मैं खिंचता चला आया हया॔त
रोक न पाये मेरे पाँव के छाले मुझ को

जावेद हया॔त
 
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