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Jawaid Hayat
 
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* उसकी नज़र उठे तो सम्भलती हैं महफ़ì *
ग़ज़ल

उसकी नज़र उठे तो सम्भलती हैं महफ़िलें
उसकी नज़र झुके तो बहकती हैं महफ़िलें

साक़ी ही मयकदे में यहाँ सब का है इमाम
साक़ी की इत्तेबा सब करती हैं महफ़िलें

यह मयकदा, सनम-कदा भी ग़म-कदा भी है
पल पल यहाँ मिज़ाज बदलती हैं महफ़िलें

साक़ी तेरी निगाह से या जाम से पियें
कर रहनुमाई आज भटकती हैं महफ़िलें

हैं अहले-दर्द आज जमा सुन के यह ख़बर
के दर्द का इलाज भी करती हैं महफ़िलें

करते हो क्यों हयात अब मीना-ओ-मय तलाश
वक़्ते-नमाज़े-फ़जर है उठती हैं महफ़िलें

जावेद ह॔यात
 
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