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Jawaid Hayat
 
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* मिली मुख़्तसर सी जो ज़िन्दगी, रही  *
ग़ज़ल 

मिली मुख़्तसर सी जो ज़िन्दगी, रही मुबतला वह अज़ाब में
वह ख़ुमार जिसकी तलाश थी, वह मिला न मुझको शराब में
वह पिघल के आईना-सीमा हो, जो मिले मझे कोई सीम-तन
मेरे इश्क़ में हैं वह गर्मियाँ, जो हैं शम्म-ए-आलम-ए-ताब में
तेरी भीगी ज़ुल्फ़ से जो गिरे, मेरी तिश-नगी का है चारा गर
के निहाँ है साग़र-ए-मयकशी, उसी एक क़तरा-ए-आब में
तू छुपा छुपा के न रख इसे, के यह जलवा-गर न हुआ अगर
तो शिकस्ता होके यह हुस्न फिर, न रहेगा हालत-ए-ताब में
मैं जो मयकदे में कभी गया, तो पिला के साक़ी ने यह कहा
तेरा दिल तो है फ़िशाँ-आतिशी, तुझे क्या मिलेगा शराब में
यह हया॔त ज़र्फ़ है इश्क़ का, के गिला न हुस्न से मैं करूँ
के ज़हर भी मुझ को पिलाए गर, वह मिलाके अर्क़े-गुलाब में
जावेद हया॔त
 
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