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Jawaid Hayat
 
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* मेरे रहनुमा के लिबास में, मेरा हमस *
ग़ज़ल 

मेरे रहनुमा के लिबास में, मेरा हमसफ़र कोई और है,
ये तुलू ए शम्स फ़रेब है, के मेरी सहर कोई और है ॥

जो सुकून ए चश्मे गुदाज़ हो, ख़म ए ज़ुल्फ़ ऐसा दिखे सही,
सर ए चश्मे आरज़ू है कोई, तो सर ए नज़र कोई और है॥

अभी मुझ पे इतना जुनूँ नहीं, ग़म ए ज़िन्दगी के महाज़ में
ग़म ए दिल के ज़िक्र पे मैं कहूँ, के अज़ीज़ तर कोई और है॥

है सफ़र वफ़ा की तलाश में, ऐ ज़मीं मुझे कहीं मोड़ दे,
मैं न चल सकूँ तेरे दौश पर, मेरी रहगुज़र कोई और है॥

मुझे अपनी आँख में तू बसा, के पता करूँ वहाँ बैठ कर,
वहाँ ओर कोई बसा है क्या, भला मेरा घर कोई और है॥

तू अना की छाओं में बैठकर, न चराग़ ए इश्क़ जला सनम,
ये ज़वाल ए हुस्न का है सबब, तेरा चारागर कोई और है॥

ये शहर है दश्त जुनून का, न भटक फ़िराक़ ए वफ़ा में तू,
के जहाँ वफ़ा की उमीद है, वो तेरा शहर कोई और है॥

है ज़मीं सुख़न की तलाश में, ऐ हया॔त नीचे उतर के आ,
तू सर ए फ़लक न उढ़ान भर, के तेरा हुनर कोई और है॥ 

जावेद हया॔त
 
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