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Josh Malihabadi
 
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* ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके *
ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके 
कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके 

मेरी तबाही दिल पर तो रहम खा न सकी 
जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके 

न जाने आह! कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री 
जो दिल से आँख तक आये मिश्गाँ तक आ न सके 

रहें ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात जहाँ 
मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके

करेंगे मर के बक़ा-ए-दवाम क्या हासिल 
जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके 

नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने 
नई ज़मीं, नया आसमाँ बना न सके
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