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Mehr Lal Soni Zia Fatehabadi
 
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* तुम्हारे रुखसार रंग ओ नूर ए शबाब स *
तुम्हारे रुखसार रंग ओ नूर ए शबाब से जगमगा रहे हैं
तुम्हारे रंगीन होंठ साज़ ए बहार में मुस्करा रहे हैं
तुम्हारे शब्गूँ सियाह गेसू , हवास ए आलम उड़ा रहे हैं
तुम्हारी आँखों में मस्तियाँ हैं
कि मस्तियों की ये बस्तियाँ हैं
यहाँ फ़क़त मै परस्तियाँ हैं
तुम्हारी रोशन जबीं में तारे निशात के झिलमिला रहे हैं
तुम आईने में सँवर रही हो

कहीं-कहीं बादलों के टुकड़े बिसात ए गर्दूं पे जलवागर हैं
ये आलम-ए जज़्ब ओ बेख़ुदी है कि फ़र्ज़ से अपने बेख़बर हैं
ये जाते ख़ुरशीद की शआएँ निढाल हो कर भी शोखतर हैं
तुम्हें दरीचे से झाँकती हैं
तजल्लियाँ नज़र कर रही हैं
तुम्हीं पे गोया मिटी हुई हैं
सरूर ए नज़्ज़ारा ए जमाल ओ निशात ए रंगीन से कैफ़ पर हैं !
तुम आईने में सँवर रही हो

मेरे दिल ए पुरउम्मीद में आरजूएं करवट बदल रही हैं
वो आरजूएँ जो मेरे सीने से आह बन कर निकल रही हैं
वो आरजूएँ जो मेरे होंठों पे खेलने को मचल रही हैं
बना हुआ हूँ नज़र सरापा !
है ख़ुश्क अब आँसुओं का दरिया
तुम्हारा चेहरा है कितना प्यारा
बार आएंगी अब वो सब उम्मीदें जो दिल में बरसों से पल रही हैं
तुम आईने में सँवर चुकी हो
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