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Mehr Lal Soni Zia Fatehabadi
 
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* ख़ुदसरी का भरम न खुल जाए । *
ख़ुदसरी का भरम न खुल जाए ।
आदमी का भरम न खुल जाए ।

तीरगी का तिलिस्म टूट गया, 
रोशनी का भरम न खुल जाए ।

मौत का राज़ फ़ाश तो कर दूँ,
ज़िन्दगी का भरम न खुल जाए ।

हुस्न मुख़तार और मैं मजबूर,
आशिक़ी का भरम न खुल जाए ।

कौन दीवानगी को दे इलज़ाम,
आगही का भरम न खुल जाए ।

कीजिए रहबरों का क्या शिकवा,
गुमरही का भरम न खुल जाए ।

इम्तिहान-ए वफ़ा दुरुस्त मगर,
जोर ही का भरम न खुल जाए ।

ऐ मुगन्नी ग़ज़ल ’ज़िया’ की न छेड़
शायरी का भरम ही न खुल जाए ।
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