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Ramesh Kanwal
 
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* क़ुरबत की तलिख़् यों से पिघलने लगì *
क़ुरबत की तलिख़् यों से पिघलने लगी है शाम
अब फ़ासलों के  शहर में ढलने लगी है शाम


शोहरत   की धूप छत की बुलंदी में खो गर्इ
शबनम  की बूंद-बूंद से जलने लगी है शाम


महफि़ल में बोलता था बहुत, शख़्स खोखला
यह राज  खोलने  को उछलने लगी है शाम


दिल्ली  का शाप-माल हो या शामे लखनउ
अल्हड़  कुंवारियों  सी मचलने लगी है शाम


ग़् ज़लों  की ताजगी  से  सराबोर है 'कवल'
शेरों के फि़क्रो-फ़न में उबलने लगी है शाम
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