* क़ुरबत की तलिख़् यों से पिघलने लगì *
क़ुरबत की तलिख़् यों से पिघलने लगी है शाम
अब फ़ासलों के शहर में ढलने लगी है शाम
शोहरत की धूप छत की बुलंदी में खो गर्इ
शबनम की बूंद-बूंद से जलने लगी है शाम
महफि़ल में बोलता था बहुत, शख़्स खोखला
यह राज खोलने को उछलने लगी है शाम
दिल्ली का शाप-माल हो या शामे लखनउ
अल्हड़ कुंवारियों सी मचलने लगी है शाम
ग़् ज़लों की ताजगी से सराबोर है 'कवल'
शेरों के फि़क्रो-फ़न में उबलने लगी है शाम
*****************************
|