* इक हवेली में बैचैन थे बामो-दर1 *
इक हवेली में बैचैन थे बामो-दर1
ख़्वाब की बसितयों मे थी इक रहगुज़र
बालकों की परेशानी पर ग़ौर कर
जल समाधि लगा बैठे बालू के घर
इक सुनहरी किरन का सफ़र तय हुआ
खुल गर्इं खिड़कियां, जाग उठा सारा घर .
अब तो तफ़रीहे2 -साहिल3 भी है रायगां4
रेत पर बस गये पत्थरों के नगर .
टेप यादों का रूक रूक के बजता रहा
रात टेलीविजन पर थे दो हमसफ़र .
पांव ज्वालामुखी पर दहकते रहे
सर पे मेरे सुलगती रही दोपहर .
देखकर मेरे जहदो5- अमल6 का दिया
मुझको आवाज़ देने लगा इक खंडर
दौरे-हाजि़र7 के इक़बालो-ग़ालिब थे सब
पर कर्इ जानते थे न शेरी हुनर
मंै वही, फिर वही बफऱ्बारी 'कंवल'
खिड़कियों पर मिली फिर वो बेकल नज़र।
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