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Ramesh Kanwal
 
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* जब से वह हो गर्इ इक छैल छबीले से अलग *
जब से वह हो गर्इ इक छैल छबीले से अलग  
उसका दिल हो गया खुशियों के कबीले से अलग 	     .                                                    


खुदशनासार्इ1 हो दरपन के वसीले2 से अलग            
ग़़ैर मुमकिन है कि हो दीप फ़तीले3 से अलग          .                                                              


रस भरे होटों की क़ुरबत4 का है ये लुत्फ़ो-करम5             
लब मेरे हो न सके प्यास के टीले से अलग           .                                           


अब भी इम़रोज6 का सूरज है जवां और दिलकश              
तुम कभी आओ तो माज़ी7 के तबीले8 से अलग          .                                                          


ज़र्द9 चेहरे की उदासी का है सैलाबे-रवां10                      
रंग  अब  कोर्इ नज़र में नहीं पीले से अलग         .                                                      


आतिशे-वक़्त ने छोड़ा न कोर्इ सब्ज़ लिबास                       
खुश्क खेतों में निशां हंै सभी गीले से अलग                                 .                                                              


गर तुझे फि़क्रे-सुखन11 है तो 'कंवल आ इक दिन              
अपने अशआर12 के महदूद13 क़बीले से अलग                   .                                                                  


1. स्वयं परिचय 2. साधन, माध्यम 3. बत्ती 4. सामीप्य 5. आनंद, कृपा 6. वत्र्तमान 
7. भूतकाल 8. अश्वशाला 9. पीला 10. गतिमय बाढ़ 11. कबिता का ख्याल 
12. शेर का बहुवचन, कविता 13. सीमित ।
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