* मये-गुलरंग1 का क़सूर नहीं *
मये-गुलरंग1 का क़सूर नहीं
तेरे दिल में ही कुछ सरूर नहीं .
लब सुलगते हें जिस्म जलता है
यूं ही बाहों में रहिये दूर नहीं .
जिक्रे-इन्सां पे चौंकने वालो
मेरे पहलू में कोर्इ हूर नहीं .
चौक उठता हूं चीख़्ा पर अपनी
मुझको जीने का कुछ शउर नहीं .
गूंज पार्इ न लज़्ज़तों की सदा
ग़म का सन्नाटा बेक़सूर नहींं .
मेरी जानिब भी इक निगाहे-करम2
कुछ कमी तो तेरे हज़ूर नहीं .
तेरी काफि़र अदा भी कातिल है
सर्द मौसम का ही क़सूर नहीं .
बाखुदा आज भी हैं आप कंवल
आंख से दूर दिल से दूर नहीं .
1. पुष्प रंग की मदिरा 2. कृपा की दृषिट।
|