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Ramesh Kanwal
 
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* मये-गुलरंग1 का क़सूर नहीं *
मये-गुलरंग1 का क़सूर नहीं                                 
तेरे दिल में ही कुछ सरूर नहीं                                                .                                                                     


लब सुलगते हें जिस्म जलता है                                
यूं ही  बाहों में रहिये दूर नहीं                                 .   
                                        

जिक्रे-इन्सां पे चौंकने वालो                              
मेरे  पहलू में कोर्इ हूर नहीं                .                                                  


चौक उठता हूं चीख़्ा पर अपनी                  
मुझको जीने का कुछ शउर नहीं            .   

            
गूंज पार्इ न लज़्ज़तों की सदा                          
ग़म का सन्नाटा बेक़सूर नहींं       .                                                                  


मेरी जानिब भी इक निगाहे-करम2                    
कुछ कमी तो तेरे हज़ूर नहीं                         .                                              


तेरी काफि़र अदा भी कातिल है                                    
सर्द मौसम का ही क़सूर नहीं                    .                                                     


बाखुदा आज भी हैं आप कंवल                                 
आंख से दूर दिल से दूर नहीं                                .                                                           




1. पुष्प रंग की मदिरा 2. कृपा की दृषिट।
 
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