* पत्थरों को आइना दिखला रहा है कोर्ç *
पत्थरों को आइना दिखला रहा है कोर्इ शख़्स
अक्स अपना देख कर घबरा रहा है कोर्इ शख़्स
सर पे है सूरज, हवायें गर्म हैं, राहें ख़्ामोश
जल रहा है और चलता जा रहा है कोर्इ शख़्स
बन संवर कर मुंतजि़र1 हैं मनिदरों मे देवियां
सुबह की किरनें बिखेरे आ रहा है कोर्इ शख़्स
खुश्क लब कांटो का उसको आ गया शायद ख़्ायाल
आबला पा2 सू-ए सहरा जा रहा है कोर्इ शख़्स
ख्वाहिशों की चिलचिलाती धूप में प्यासा हंू मैं
जामे-वस्ले-यार कब से पा रहा है कोर्इ शख्स .
दो हरे शादाब पत्तों का सिमट कर टूटना
भींच कर मुझको सुनाये जा रहा है कोर्इ शख्श
तुम मिलन की रात का मंज़र न खैंचाें ऐ 'कंवल
शर्म से खुद में सिमटता जा रहा है कोर्इ शख़्श
1. प्रतीक्षारत, आशनिवत 2. पांव का छाला
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