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Ramesh Kanwal
 
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* सर्द है रात, सुलगती हुर्इ तन्हार्ç *
सर्द है रात, सुलगती हुर्इ तन्हार्इ है                                            
दिल के आग़ोश में इक चोट उभर आर्इ है                             .                                                            

मेरे महबूब कहां है तू सदा ही दे दे                                       
जिं़दगी फिर मेरे माज़ी को पुकार आर्इ है   				 			                                                                

महो-अंजुम1 की जवानी भी ढली जाती है                       
आखि़री लौ तेरी उम्मीद को उसकार्इ है                             .                                               

जुस्तज2ू मेरी ज़मी पर न करो अहले-ज़मीं3                   
जि़ंदगी मेरी ख़्ालाओं के करीब आर्इ है                         .                                                            

जख़्म के फूल़ महक उठठे हैं, सागर खनके                      
साकि़या! जाम, चली यादों की पुरवार्इ है                                                     .                                                             

जब भी छार्इ है मेरे सर पे मुसीबत की घटा                            
आशना चेहरों ने यक गोना4 जि़या पार्इ है                           .                                                       

ज़ुल्फ़-बर-दोश5 है साक़ी भी घटायें भी हैं                                
रक़्से-मय तेज़ करो जश्न की रात आर्इ है                              .                                                 

गर्द राहों की मेरे पांव ने चाटा है 'कंवल                               
तब कहीं मंजि़ले-मक़्सूद6 नज़र आर्इ है।                                .                                                            


1. चांद और सितारों 2. अन्वेषण, खोज 3. पृथ्वी निवासियों 
4. एक रंग-एक प्रकार 5. कंध्े पर अलक 6. अभीष्ट स्थान ।

 
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