* देख पायल कहाँ छनकती है *
ग़ज़ल
देख पायल कहाँ छनकती है
किसकी ये आत्मा भटकती है
पेड़ क्यूँ टूट टूट जाते हैं
ये हवा इतना क्यूँ तड़पती है
एक चेहरा है क्या छलावा है
ख़्वाब-दर-ख़्वाब शब भटकती है
तेरी ख़ुश्बू की प्यासी शब शब-भर
मेरे सीने पे सर पटकती है
इक घड़ी तेरे संग सदियों से
बस मुझे मिलती मिलती मिलती है
खोल दी है घड़ी कलाई से
अब ये टिक-टिक ज़हन में चलती है
एक चिड़िया गुलेल ने पटकी
मेरे अंदर पड़ी सहकती है
इस कमी को कहाँ पे ले जाऊं
कुछ भी पा लूं मगर खटकती है
कितने बचपन के वादे थे 'बेदाग़'
ज़िंदगी सब के सब मुकरती है
-सतीश बेदाग़
|