* मक़बरों सा है सुकूत ऐ दिल घरों के द *
ग़ज़ल
मक़बरों सा है सुकूत ऐ दिल घरों के दरमियाँ
चल कहीं इक घर बना लें मक़बरों के दरमियाँ
काफ़िरों के संग तो कट जाएगी मेरे ख़ुदा
ज़िंदगी दुशवार है पर कायरों के दरमियाँ
बुद्ध की प्रतिमाएं तुमने तोड़ दीं अच्छा किया
बुद्ध की रुह घुट रही थी पत्थरों के दरमियाँ
आप भगवा डाल कर मठ में रहो आराम से
काम क्या है जंगजूओं सरफिरों के दरमियाँ
मुंह से निकला आप की मर्ज़ी से साँसें चल रहीं
और तो हम क्या बताते मुखबिरों के दरमियाँ
-सतीश बेदाग़
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