* वो तेरी उड़ती हुई ज़ुल्फ़ें झूलते *
ग़ज़ल
वो तेरी उड़ती हुई ज़ुल्फ़ें झूलते हुए पाम
छुपा के रक्खी है मैंने वो डायरी में शाम
तुम आज याद बहुत आए मैं अकेला था
वही समय वही सिग्नल वहीं था ट्रैफिक-जाम
ये पोस्ट हो नहीं सकते ये आके ले जाना
कुछ एक लम्हों के नीचे लिखा है तेरा नाम
ये चील-कौओं के जैसे जुटे हैं बीते पल
मचा है ज़हन के परदे पे बेतरह कोहराम
कहीं से उभरा तेरा चेहरा मेरी नींद गई
ये सपना हो नहीं सकता ये था कोई इल्हाम
-सतीश बेदाग़
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