* खुले कहीं से तो तन्हाई का स्याह ता *
ग़ज़ल
खुले कहीं से तो तन्हाई का स्याह ताबूत
कहीं से हमको भी मिलने लगे सुनहरी धूप
उदास देख के मुझ को उदास है ये भी
गवाह अच्छे दिनों का है टेलिफ़ोन का बूथ
है मौत से बड़ा सच कोई नहीं जाने दे
तुम्हारे सच से हसीं है ये ज़िन्दगी का झूठ
कुनीन जैसी तेरे शहर की धुवाँखी हवा
वो मेरे गाँव की मीठी हवा चटक शेह्तूत
जो ख़ुश हुए तो क़लम बाँसुरी बना लेंगे
हुए नाराज़ तो हो जाएगी यही बंदूक़
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