* इन मुहल्लों में बड़े तड़के से है ज *
पेश है एक नई ग़ज़ल:
इन मुहल्लों में बड़े तड़के से है जागो रही
मीडिया-वालो कहाँ सरकार अब तक सो रही
उजले धारण कर लिए हैं वेश असुरों ने महज़
कुछ नहीं बदला वही आदमबो-आदमबो रही
सूखते जाते हैं दरिया आ रही सूनामियां
सोचना तो ऐ बशर कुदरत ख़फ़ा क्यूँ हो रही
इक से इक बढ़के रही वीरांगना इस देश में
लक्ष्मीबाई रही जोधा रही भागो रही
तर्जुमा अश'आर का मेथी की सूखी पत्तियां
रस रहा न मास मगर तासीर वो कि वो रही
-सतीश बेदाग़
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