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Wafa Naqvi
 
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* उदास शाम की तरहा सिमट रही है ज़िंद *
उदास शाम की तरहा सिमट रही है ज़िंदगी,
तेरे बगैर मेरी जान कट रही है ज़िंदगी |

गुज़र रहे हैं रात दिन तो सोचने की बात है,
यह बढ़ रही है ज़िंदगी के घट रही है ज़िंदगी |

ना जाने किस की याद में बुझे हुए चिराग़ से,
तड़प के राहे आम पर लिपट रही है ज़िंदगी |

हर एक लम्हा हिल रहे हैं इस के होंट रात दिन,
किसे ख़बर किसे पता जो रट रही है ज़िंदगी |

परिंदे जा रहे हैं फिर से लौट कर दरख़्त पर,
घरों की समत शाम को पलट रही है ज़िंदगी |
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