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* डरपोक हू मै ! *
डरपोक हू मै !
कवच से अपने निकलना नही चाह्ती
नोच डालेंगे चील कौव्वे
गर हाथ भी बाहर निकाला मैं ने अपने "कवच" से
अरमान् नही दुनिया देखने का
ये सच है कि आती है "सूरज "की सतरंगी किरणे
झीनी बीनी खिड़कियों से
जगा जाती है सतरंगी ख्वाहिशे.........
मगर सिल दिये है मै ने उन ख्वाहिशो की ज़ोबान
जो कह्ती तो कुछ और है
सुनाई औरो को कुछ और देती है
लगता है "हवा" ही दुशमन है
जो शब्दो के " अर्थ " बदल देती है
नही-नही सतरंगी किरणे दोषी है
जो सतरंगी अरमान जगाती है........
नही -नही ये "पानी " ही दुश्मन है
जो आंखो के रास्ते बह् जाता है सारा का सारा~~~
कुछ नही छोड्ता
जिन मे सपने तैर सके~~~~
नही-नही ये " ज़मीन " दोषी है
जिन मे इतने कांटे है कि मै चल नही पाती
अपने कवच के साथ लुढकती फिरती हू
नही-नही ये "आग" दोषी है
जिसने मेरे अन्दर इतनी आग भर दी है
कि अब मै उठ खडी हो रही हू
अपने कवच से बाहर निकलने के लिये
पांव बाहर निकालते ही
सूरज के साथ साथ अपने क़दम बढाते ही
शूल ,फूल बनते जा रहे है..
आंखो का पानी
खुशियो की बरसात बन बरस रहा है
सूरज की सतरंगी किरणे दे रही है एक नई उर्जा मेरे जिस्म् को
और हवाए चीख-चीख कर खुश-आमदीद्..खुशामदीद कह रही है
लबबैक...लबबैक्....
शायद दोषी मै ही थी~
जिस से मै डरती थी वो मेरी ताक़त थे
नही नही दोषी ,शायद मेरा कवच था
जिसके अन्दर पुरसुकून ज़िन्दगी थी
वो ज़िन्दगी नही मौत् थी
खामोश सी ठन्डी सी
सुकून भरी...
ज़िन्दगी तो मेरी अब शुरु हो गयी है
रब की कुर्बतों के साथ..रहमतो के साथ
सूर्य की सतरंगीन किरणों के साथ ...
(तहरीर मेरे इश्क़ की :--25 जनवरी - 2005 पोस्ट कार्ड पर लिखी यह तहरीर मुझ से आज बातें करने लगीं , जब मैं किताबों पे जमती जा रही धूल को साफ़ कर रहा था / खुर्शीद हयात )
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