* ऐ मेरे स्रष्टा अन्नदाता मेरे उपका *
ऐ मेरे स्रष्टा
अन्नदाता
मेरे उपकारी !!
लो मैं ने लफ्ज़ लफ्ज़ तेरी तहरीर के साथ
जिंदगी-सफ़र शुरू कर दिया है
"नहीं नहीं नहीं कोई ....."
सिर्फ तू ही तू
कू ब कू
लफ्ज़ लफ्ज़ तहरीरें
जब ठंडी छाँव बन फैलती जाएँ ...........
तेरी रहमतें सायेदार दरख्तों .....
उनकी जड़ों की तरह फैलती जाएँ
फिर मैं किसी और साए की तलाश में क्यों भटकूँ
क्यों किसी और दर पे सजदा करूं ?
तुम्हारी तरफ से भेजी गयीं लफ्ज़ लफ्ज़ तहरीरें
जब "सखियाँ /सहेलियां '' बनती जाएँ
फिर मैं किसी और को क्यों ताकूं
क्यों किसी और "आँगन"में झांकूं ??
तू जो करे है
भला करे है
मैं तो से कुछ न मांगूं
बस इतना चाहूं ..............
मेरे माथे पे जो तेरा " आँचल " है
उसे फैला दीजियो .............
मुझे एक कामयाब माँ बना दीजियो ............
आसमाँ को मेरी छत
ज़मीं को फर्श बना दीजियो
खूबसूरत सी क़ालीन बिछा दीजियो
तुम तो जो चाहो हो करो हो
मुझे एक कामयाब "माँ "बना दीजियो !!
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(उन आवाज़ों के नाम जो आये दिन पीछा करती रहती हैं , मुहब्बत की राहों में काँटे बिछाती हैं ... "एक " दो , तीन , चार " का पाठ पढाने लगती हैं ....... '"एक " के साथ तो ये इंसाफ नहीं कर पाते.... और .....!!
सबसे बड़ी नेकी यह नहीं कि पश्चिम की तरफ मुंह कर लो ....... सब से बड़ी नेकी क्या है ......... ये आवाजें जानते हुए भी अनजान बनती हैं ........ बाबा माई बनने दो ............. आवाजें पीछा मत करो )
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