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Khurshid Hayat
 
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* आज मैं खुद को तेरे क़रीब पा कर *
 आज मैं खुद को तेरे क़रीब पा कर 
सब कुछ भूल गया हूँ 
 मेरी जुल्फें बिखरी हुई हैं 
आँखें कभी झुकी हुईं 
कभी नीले आकाश की बुलंदी में 
खोये हुए " वजूद" को ढूँढती हुईं 
"नहीं "से " हाँ " तक का सफ़र 
सफ़र और सिर्फ सफ़र 
ना ही भूख का एहसास 
ना तिश्नगी का 
कोई खुशबू मिटटी बदन पर नहीं 
नाख़ून बढे हुए 
" धूल '' में लिपटे हुए '
कपड़ों ' को छोड़ आया 
कोई घाट नहीं 
कोई खाट नहीं 
"घाट" थे मगर दरिया में " पानी" नहीं 
 सिर्फ ढाई ढाई मीटर की सफ़ेद रिदा
मुझ से लिपटी थी 
सिर पर ढकने के लिए कुछ नहीं  
आसमान आसमान 
रहमता रहमता 
बरकता बरकता 
सिर उठाने के काबिल नहीं 
मुंह दिखने के लाइक नहीं 
उम्मीद ऐ मगफिरत की  गठरी लिए 
तेरे दर पे आये -------
यह घर आपका 
यह दर भी आप का 
 तमाम आलम के पालनहार 
हमें ये दे दीजियो 
हमें वो भी दे  देजियो  
हमें अपना दुलारा बना लीजियो 
हर बन्दा आपका ही बन्दा 
तेरे अर्श के सिवा अब कहाँ साया ?
अपने अर्श के साए में  
थोड़ी सी जगह दे दीजियो 
बहुत प्यासा हूँ 
खुश ज़ायका शरबत दे दीजियो 
हम सब को ये दे दीजियो 
हम सब को वो भी  दे दीजियो ... ....
तू जो बेहतर  समझे वो सब दे दीजियो 
ये भी दे दीजियो , वह भी दे दीजियो !
---------- खुर्शीद हयात --------------------
 
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