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Khurshid Hayat
 
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* पिछली शब् जब लफ्ज़ आसमाँ से उतर रह *
पिछली शब्
जब लफ्ज़  आसमाँ से उतर रहे थे
चांदनी लिबास में लिपटे हुए
तहरीरों ने झिलमिलाते हुए
तारों की तरह
मेरी आफताबी निगाहों में झाँक कर
हौले से कहा ---------
मैं तेरी आँखें बन जाऊं
और तू मेरी बाँहें ----------
मैं बन जाऊं लफ़्ज़ों  की मौजें
और तू  बन जा समुन्दर
मैं बन जाऊं तेरी दुआएं
तू बन जा सब्ज़ गुंबद की सदायें
ये भीगा भीगा सा चमन
उस पे माँ जैसी अदाएं ------
हालत ये कैसी बना ली है तुमने
इक नगमा भी ज़रूरी है
जान ए जानाँ !
मुहब्बत में इतनी  दीवानगी भी अच्छी होती नहीं
माना कि मुहब्बत में होता नहीं कोई शरीक
फिर भी पढ़ लेते नहीं क्यों गिनती
एक  दो तीन चार की
"तुम '' ने कह दिया था-------
ना ना  न  .........
क्या खूब थी अदा भी "मेरी " रूह की
जुदा हुयी भी तो
तुम से इजाज़त ले कर ........
जब भी मैं आती हूँ
तुम्हारी ख्वाबीदा निगाहों में
कह जाती हूँ हौले से
ऐ मेरे दीवाने !
पिछले पहर की धूप ,
शब् की चांदनी है .
इसी में हयात की नगमगी  है
****************
( खुर्शीद हयात )
 
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