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Khurshid Hayat
 
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* इक ख़लिश सी थी *
इक ख़लिश  सी थी
मेरे अन्दर
जब मैं रोते हुए
इस जहाँ  में आया !
मगर ,
लफ़्ज़ कहाँ थे मेरे पास ?
जो इज़हार कर पाते ....
इज़हार के लिए लफ्ज़ ज़रूरी
और लफ्ज़ के लिए
तेरी बनायीं हुयी "ग्रामर " भी लाज़िम
कितना हसीं था वो मंज़र
जब मैं इक मिटटी
तेरे करीब
और मंजिल
मेरी बांहों में
न कोई सवाल और न ही कोई जवाब
और अब ये जिंदगी मेरी
सरमाया ए फरेब के सिवा कुछ भी नहीं थी
पंख गर दिए होते त...
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