* वह सुनहरी सी थी *
वह सुनहरी सी थी
सुनहरी आज भी है
वह तपती थी
तपती आज भी है
समुंदर की इक प्यास लिए
भटकती थी
भटकती आज भी है
कभी नर्म हथेलियों से
चिपक जाती थी
कभी समय की तरह
फिसल जाती थी
फिसलती आज भी है .
आज उन फिसलते हुये लम्हों मे
तेरी याद बहुत सतायी
याद आई
रेत घरौंदों की
उन दरवाज़ों की
जो दायेरे की शक्ल लिए होते थे
उन दायरों की कोई दिशाएँ नहीं होती थीं ....
आज हर चेहरा अपनी
दिशाएँ लिए साथ चलता है
और दो अंजान मासूम हथेलियाँ
रेत घरौंदे - दायेरे से
हमें आवाज़ देती हैं .
जब जब दायरों को तोड़ोगे
नयी दिशाएँ तुम्हें आवाज़ देंगी
तब तुम मुझ से मिलने आ जाना
रेत घरौंदा मे
मासूम हथेलियाँ
इक प्यास लिए
तुम्हारे स्पर्श के इंतज़ार में हैं
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(ख़ुर्शीद हयात : 12:45 30 जून -2012)
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