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Khurshid Hayat
 
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* 'तुम"जब साथ साथ चलते हो *
'तुम"जब
साथ साथ चलते हो
हर "अक्षर " को
इक नया
"आवरण "
मिल जाता है
और शब्दों को
इक नई " वाणी "
मैं तुम्हारी
"वाणी " के पीछे
हर मौसम में
भागता रहा
कभी भीगा हुआ तन-मन
कभी धूप में तपता हुआ बदन 
मैं तो से
कुछ न बोलूँ
"तुम " तो
राह के
हर उस मुसाफिर के साथ हो
जो तुम्हारी
ड्योढ़ी के करीब पहुँचते है
अब मैं तो से का बोलूँ
सांझ की इस बेला में
का से बोलूँ ....
कुछ न बोलूँ !
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