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* कहानी तो हम सब के अन्दर समुन्दर की *
कहानी तो हम सब के अन्दर समुन्दर की लहरों की तरह उभरती डूबती रहती हैं .
समुन्दर में मैं हूँ
मुझ में समुन्दर
बारिश की बूँदें समुन्दर में
और समुन्दर बारिश की बूंदों में .
मुझे करीब से देखो
पहचानो !
उभरती डूबती लहरें तुम से क्या कह रही हैं ?
आदमी !
साँप से भी ज़हरीला आदमी !!
आदमी हरे भरे दरख्तों की जड़ों को कुरेदता आदमी इ दरख्तों को काटने के मुआमले में शर्मनाक किरदार निभाता आदमी -
आदमी - सुख में साथ देता , दुख में साथ छोड़ता आदमी-
आदमी बीमार परीशाँ को देख कर मुस्कुराता आदमी ----
आदमी अब आदमी कहाँ रह गया है - वह तो भगा जा रहा है , तेज़ धूप में बारिश में , आंधी और तूफ़ान में , मंजिल का पता नहीं , वह तो है किसी और राह का मुसाफिर , मगर भगा जा रहा है , टेढ़ी मेढ़ी पगडण्डीयों पर ..........
अजमत ए आदम की गुम होती तहरीक क्या तुम्हें बेचैन नहीं करती मेरे ननकू !
कहानी अब शुरू होती है , मेरे प्यारे ननकू !!
आज कल रातों में नींद नहीं आती - जाग जाती है राबिया अक्सर रातों में खांसते खांसते - देखती है वह दायें बाएं , एक तरफ सोयी अपनी बेटियों को , दूसरी तरफ अपने शौहर को , जिस के चेहरे पर एक इत्मीनान है की वह अपनी गिरफ्त से जाने नहीं देगा , शायद दोनों की रूहें मुहब्बत की डोर से बंधी हैं -
रूह का रिश्ता एक बीमार बीवी और शौहर का -
शौहर के चेहरे में कभी वह कभी अपनी माँ को देखती है , तो कभी अपने वालिद को कि आज कि माएँ तो कुत्ते के बच्चों को गोद में ले कर प्यार करती हैं , मगर खुद उनकी बेटियां नौकरानी कि गोद में पलती हैं बढती हैं -
माँ एक गुमशुदा पंछी कि तरह और हमारा आज का कल्चर , कुत्ता कल्चर !
आदमी कुत्ता - कुत्ता आदमी .
"सावधान यहाँ कुत्ते रहते हैं "
आदमी कहाँ रहते हैं कहाँ बसते हैं -?
घरों में आदमी के चेहरों की जगह कुत्तों ने ले ली -
हम तरक्की कर रहे हैं मेरे दुलारे ननकू !
घरों में आदमी के चेहरों कि जगह कुत्तों ने ले ली - पुरानी सुनहरी क़दरों की जगह नई क़दरों ने ले ली फ़िरोज़पुर डिविज़न के काला बकरा स्टेशन पर बैठे राबिया और ननकू दुरंतो एक्सप्रेस का इंतज़ार कर रहे हैं और राबिया कहानी सुना रही है - ननकू सोच रहा है की यह कहानी राबिया अपनी सुना रही है या फिर कोई और राबिया मालकिन के अन्दर रच बस गयी है -
वैसे मालकिन ने जिंदगी में बहुत उतार चढ़ाव देखे हैं -
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"काला बकरा "स्टेशन पर कहानी आगे बढती है - प्लेटफार्म नंबर २ पर , चंद क़व्वाल कहीं जा रहे थे , उनके इर्द गिर्द भीड़ जमा थी , किसी ने भीड़ में से फरमाईश की और फिर फ़िल्मी गानों पर लिखी गयी नातों पर ,हाथों में झंडे लिए लोग झूमने लगे - पान खा कर क़व्वाली की महफ़िल जम गयी -
हर किस्म की हवाएं बह रही हैं .हवाएं ठंडी भी , गर्म भी ... इंसानी जिंदगी के मुताबिक भी . इन हवाओं पर किस की हुकूमत है ? मगर क़व्वाली में किसी और को मुरादें पूरी करने वाला कहा जा रहा था ...
"ननकू ! कहाँ गुम हो गया रे ... क्या सोच रहा है ? क्या देख रहा है ??"
"कहीं नहीं मालकिन , सफ़र में एक तरह के ख़यालात नहीं आते , मैं शऊर की रौ में बह रहा था ,सामने भीड़ को देख कर , भीड़ की मंजिल का हमें पता नहीं होता ..."
"चल , कहानी सुन ! आने वाले दिनों में तुझे कहानी सुनाने वाला चेहरा नहीं दिखाई देगा ".
राबिया का बीमार जिस्म काँप रहा है , कमजोरी से डर रहा है , डर रहा है मौत की आहट से , मगर वह मरना नहीं चाहती , निजात पाना नहीं चाहती इस तकलीफ से , जो इस के लिए रहमत हैं , उसकी जन्नत हैं . रब की कुर्बत है ...
राबिया रो रो कर सारी रात जागती है , जिस्म की तकलीफ की शिद्दत आजकल कुछ ज्यादह बढ़ गयी है . रूह ज़ख़्मी है , मगर वह उसे रब की रहमत मानती है . रात के एक बजे से सुबह के छः बजे के सरे लम्हे कभी लेटे लेटे तो कभी बैठे बैठे गुज़र जाते हैं - सोचती चलो उठ कर "तहज्जुद" पढ़ लें - लेकिन जिस्म में न तो "फ़जिर ' पढने की ताक़त है , न ही तहज्जुद की ..न ही खड़े होने की ताक़त है न ही बैठने की ...लब हिल रहे हैं , इशारों में रुकू और सजदे हो रहे हैं .
( पहली किस्त : कहानी अभी जारी है ....आइये "चौपाल" में कहानी सुनने की परम्परा को आगे बढ़ाएं , अगर आप की ख्वाहिश होगी तो दूसरी किस्त ..... खुर्शीद हयात )
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