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Ramesh Kanwal
 
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* हर पल संवरने सजने की प़फुरसत नहीं  *
हर पल संवरने सजने की प़फुरसत नहीं  रही
आंखों  को  आइने  की ज़रूरत नहीं  रही

मिलने  पे यूँ बिछुड़ने का अहसास ही न था
बिछुड़े तो कभी मिलने की कि़स्मत नहीं रही

आंखों  में एडस होने का है खा़ैपफ इस  तरह
अब  बेवप़फार्इ  की  कोर्इ  सूरत  नहीं  रही

हमदर्दी  की वो ध्ूम है राहत की राह  पर
'कोसी को कोसने में भी लज़्ज़त नहीं  रही

अब मुंतजि़र नहीं हूं मैं खिड़की से ध्ूप  का
अच्छा  है  मेरे  सर पे कोर्इ छत नहीं  रही

लुत्प़फो-करम  है  दौलते-इफ्ऱलास  का  यही
महपि़फल  में मेरी   इज़्ज़तो-शोहरत नहीं रही

उसके  बदन  की गंध् मुझे भा गर्इ  'कंवल
अब  खुशबुओं की मंडी की चाहत नहीं रही
 
 
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