* आस्थाओं का मुसाफि़र खो गया *
आस्थाओं का मुसाफि़र खो गया
रास्तों की बत्तियों को क्या हुआ
भावनाओं के समुन्दर से परे
अक्षरा के हुस्न ने जादू किया
दिल के दरवाजे़ की सांकल खुल गर्इ
दस्तकों के साथ इक चेहरा बढ़ा
पत्थरों पर घास यूं आर्इ उभर जैसे गहरे èयान से साधू जगा
जिंदगी का कोप है दहलीज पर
मेरे तन ने एक वर्जित फल चखा
आदिवासी औरतों के गांव में
थोड़े दिन ही ख़्वाब का मौसम रूका
जल बुझी सांसों की सारी तीलियां
तब खंडर यह उम्र का रौशन हुआ
इक शिला थी, एक था पत्थर 'कंवल'
दोनों के संघर्ष से चूल्हा जला
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