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Ramesh Kanwal
 
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* रंजिशे उभरीं तअल्लुक़1 के सभी दर *
रंजिशे   उभरीं  तअल्लुक़1   के   सभी   दरपन   चनक   कर   रह   गये 
रूत  मुलाक़ातों  की आर्इ,  दो  हसीं  चेहरे बढ़े,  लेकिन झिझक कर रह गये  
	


काली  रातें  ओढ़कर सोने   लगे  जब  दो   बदन,   आर्इ  बहार 
पत्तियों की ओट में खिलते  हुये दो   गुल   दमक   कर  रह गये           . 


आबशारे-दश्त2  में   धोकर   सुनहरा   जिस्म   इक महवश3   उठा     
और फिर  हम   डूबते  सूरज  की  राहाें  में  भटक   कर रह गये            .


हौसलों   के   पांव   थे ,  बेरोज़गारी    की   सुलगती  रेत  थी        
बेबसी  की  धुंद  में  तुम  खो   गये,  हम भी भटक कर  रह गये        .                                                  							                                                             
                                                                       

हादिसों  की   जर्बे-पैहम4  ने  बना डाला हमें बेजानो- बेहिस आर्इना
वक़्त का  चेहरा भयानक था मगर  हम भागते कैसे चटक कर रह गये


शहर की बाहों मे पलती सभ्यता बतलायेगी कि गांव की                                        
सादगी और प्यार किस झुरमुट में किस डर से दुबक कर रह गये                                              


जब खि़ारद5 की धूप मे जलने लगे ख़्वाबे-सहर6 दिल के 'कंवल                       
हम सकुते-दश्त7 बन बैठे, जुदार्इ में सनक कर रह गये                                 



1. संबंध 2. जंगली झरना -जल प्रपात 3. चांद के समान (पे्रयषी) 4. निरंतर प्रताड़ना 
5. बुद्धि 6. प्रात:काल का सपना 7. वन की चुप्पी ।	
 
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