जो रही और कोई दम यही हालत दिल की। आज है पहलु-ए-ग़मनाक से रुख़स्त दिल की॥ घर छुटा, शहर छुटा, कूचये-दिलदार छुटा। कोहो-सहरा में लिये फ़िरती है वहशत दिल की॥ रास्ता छोड़ दिया उसने इधर का ‘आसी’। क्यों बनी रहगुज़रे-यार में तुरबत दिल की॥ ****