|
* दिल से अपनाया न उसने ,गैर भी समझा नह *
ग़ज़ल
दिल से अपनाया न उसने ,गैर भी समझा नहीं
ये भी इक रिश्ता है जिसमें कोई भी रिश्ता नहीं
ये बला के पैंतरे, ये साजिशें मेरे खिलाफ
राएगाँ हैं , मैं तुम्हारे खेल का हिस्सा नहीं
ऐ मेरी खानाबदोशी ! ये कहाँ ले आई तू
घर में हूँ मैं और मेरा घर मुझे मिलता नहीं
सब यही समझे, नदी सागर से मिल कर थम गई
पर नदी तो वो सफ़र है जो कभी थमता नहीं
वक्त बदला ,लोग बदले , मैं भी बदली हूँ मगर
एक मौसम मुझमें है जो आज तक बदला नहीं
दीप्ति मिश्र
|
|