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Munawwar Rana
 
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* जो उसने लिक्खे थे ख़त कापियों में  *
जो उसने लिक्खे थे ख़त कापियों में छोड़ आए
हम आज उसको बड़ी उलझनों में छोड़ आए
अगर हरीफ़ों में हता तो बच भी सकता था
ग़लत किया जो उसे दोस्तों में छोड़ आए
सफ़र का शौक़ भी कितना अजीब होता है
वो चेहरा भीगा हुआ आँसों में छोड़ आए
फिर उसके बाद वो आँखें कभी नहीं रोयीं
हम उनको ऐसी ग़लतफ़हमियों में छोड़ आए
महाज़-ए-जंग पे जाना बहुत ज़रूरी था
बिलखते बच्चे हम अपने घरों में छोड़ आए
जब एक वाक़्या बचपन का हमको याद आया
हम उन परिन्दों को फिर घोंसलों में छोड़ आए
साथ अपने रौनक़ें शायद उठा ले जायेंगे
जब कभी कालेज से कुछ लड़के निकाले जायेंगे
हो सके तो दूसरी कोई जगह दे दीजिये
आँख का काजल तो चन्द आँसू बहा ले जायेंगे
कच्ची सड़कों पर लिपट कर बैलगाड़ी रो पड़ी
ग़ालिबन परदेस को कुछ गाँव वाले जायेंगे
हम तो एक अखबार से काटी हुई तसवीर हैं
जिसक काग़ज़ चुनने वाले कल उठा ले जायेंगे
हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिये
माँ, हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे
आँखों में कोई ख़्वाब सुनहरा नहीं आता
इस झील पे अब कोई परिन्दा नहीं आता
हालात ने चेहरे की चमक देख ली वरना
दो-चार बरस में तो बुढ़ापा नहीं आता
मुद्दत से तमन्नएँ सजी बैठी हैं दिल में
इस घर में बड़े लोगों का रिश्ता नहीं आता
इस दर्ज़ा मसायल के जहन्नुम में जला हूँ
अब कोई भी मौसम हो पसीना नहीं आता
मैं रेल में बैठा हुआ यह सोच रहा हूँ
इस दैर में आसानी से पैसा नहीं आता
अब क़ौम की तक़दीर बदलने को उठे हैं
जिन लोगों को बचपन ही कलमा नहीं आता
बस तेरी मुहब्बत में चला आया हूँ वर्ना
यूँ सब के बुला लेने से ‘राना’ नहीं आता
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