ग़ज़ल
वो उस में झांक कर सब देखता है,
हर एक इन्सां का दिल इक आईना है.
जिसे मैंने मौहब्बत से नवज़ा,
वही मेरी शिकायत कर रहा है,,
कोई उसकी हिमाकत देखे यारो,
समन्दर से जो कतरा मांगता है,,
हर एक इन्सां से जो मिलता है झुक कर,
वही इन्सां हकी़कत में बड़ा है.
चलो माना के मैं कतरा हूँ लेकिन,
"समन्दर से कोई तो वस्ता है"
कभी जिसके मुकद्दर में था गुलशन,
वही अब ख़ाक दर दर छानता है,,
हुई है बात क्या बज़्मे तरब में,
बहुत गुम सुम सिराजे खुशनवा है...!
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